Tuesday, October 26, 2010

ऊपर वाले

मै भिखारी हूँ थोड़ी दुआ माँगने आया हूँ,
मै मुजरिम हूँ अपना गुनाह कबूल करने आया हूँ।
एक अँधा हूँ रौशनी माँगने आया हूँ,
बदसूरती में नूर माँगने आया हूँ।
इस्तकबाल ऊपर वाले मालिक का करता हूँ,
जो मै हमेशा उसके दर पर आता हूँ।
अजीब रहमत है उसकी इबादत में,
वो तो है अब हम सब के दिलों में।
कभी खुदा बोल उठते है,
तो कभी भगवन का नाम देते है।
कभी मंदिर में पूजा करते है,
तो कभी मस्जिद में सजदा करते है।
बोला 'मनु' अब कहा मै मंदिर-मस्जिद को खोजू,
जब बसते अल्लाह और भगवान् हम सब में है।
थोडा खुद को खोजो फिर से दुबारा,
वरना हमेशा खुद को पवित्र और पाक करते रह जाना है।

कौस्तुभ 'मनु'

2 comments:

  1. it is not only a poem .....a lession to every body....well said poetry...!!!

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  2. बहुत ही अच्छा है मनु भाई , बधाई स्वीकार करें ! मित्र , जिसने भी गुनाह कुबुल कर लिया उसने सब कुछ पा लिया !

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