Friday, October 22, 2010

दुबारा सोचिये !

देते है दंश माँ को बार - बार,
फिर भी नही होते शर्म से तार - तार ।
करते है आह्वाहन मंदिर- मस्जिद बनवाने का,
अब करो आह्वाहन एक नयी 'सोच' बनाने का।
विभिन्न मुद्दों पर जब तर्क- वितर्क है करते,
फिर भी संवेदनशीलता - ह्रास का व्यंग है कसते।
सोचते है सब सिर्फ अपने बारे में अगर,
फिर दूसरों से जलन कैसे हो जाती है।
कहते है कलयुग इसे फिर ,
लोगों में मोहब्बत कैसे हो जाती है।
मानवता विहीन नही कह सकते,
बस एक 'विचारधारा' की कमी समझ है सकते।
अपराधी तो हमेशा किसी न किसी के रहेंगे हम,
बस कम से कम यह ही सोच के चलो कि आज से अपराध करेंगे कम।

कौस्तुभ 'मनु'

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