तूफ़ान में दिए को जलाने का शौक है,
दिल में ऊपर वाले का खौफ है ।
दिखता उन्माद चेहरे पर कम है,
फिर भी ज़बान हमारी बेशर्मी में तंग है।
बुरे वक़्त में भी मुस्कुराते हम है,
औरों को कभी कभी इसी बात का गम है।
जहाँ सब को आगे बढ़ने की जल्दी है,
हमें खुद को ऊपर उठाने की तेज़ी है।
जहाँ सब को अपनो के लिए समय की कमी है,
हमें अजनबियों के लिए भी आखों में नमी है।
शायद इसी लिए हम सब के लिए अप्रैल के फूल है,
फिर भी हम अपने आप में कूल है ।
कौस्तुभ 'मनु'
Wednesday, April 6, 2011
Monday, April 4, 2011
कशिश
कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ,
माँ की रोक में, या फिर पिता की टोक में,
उसकी बातों में, या फिर अकेले अँधेरी रातों में,
कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ।
प्रोफेसर की डाट में , या फिर विद्यार्थी की काट में,
गर्लफ्रेंड से तकरार में, या फिर बेपनाह प्यार में,
कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ।
सुबह को गैस पर उबलते दूध में , या फिर रात को नींद ख़राब करते शोर में,
रोज रोज की लम्बी कूद में, या फिर हमे डराते चोर में,
कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ।
बॉस की फटकार में,या फिर सह-कर्मी की निंदा में,
मेट्रो में भीड़ से होती तकरार में, या फिर और रुपये कमाने की चिंता में,
कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ।
कौस्तुभ 'मनु'
माँ की रोक में, या फिर पिता की टोक में,
उसकी बातों में, या फिर अकेले अँधेरी रातों में,
कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ।
प्रोफेसर की डाट में , या फिर विद्यार्थी की काट में,
गर्लफ्रेंड से तकरार में, या फिर बेपनाह प्यार में,
कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ।
सुबह को गैस पर उबलते दूध में , या फिर रात को नींद ख़राब करते शोर में,
रोज रोज की लम्बी कूद में, या फिर हमे डराते चोर में,
कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ।
बॉस की फटकार में,या फिर सह-कर्मी की निंदा में,
मेट्रो में भीड़ से होती तकरार में, या फिर और रुपये कमाने की चिंता में,
कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ।
कौस्तुभ 'मनु'
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