Saturday, December 10, 2011

जख्म अगर यूँ ही भरने लगते तो,
प्यार में इतनी तड़प न होती .
न दिल का यूँ  टूटना होता,
दिल में इतनी कसक न होती .

- कौस्तुभ 'मनु'

Wednesday, November 9, 2011

जिंदगी के नाम

बहुत है गम दुनिया में अगर,
तो खुशिया भी कम नहीं,
मिलने को हो दिल में जज्बात अगर,
तो एक लम्हा भी कम नही.
कितनी संभाल कर रखोगी दिल में नफरतें,
वादा है बदल जाएँगी मोहबत में आपकी नफरतें.
फिर इतिफाक़न कभी जो सामना हुआ अपनी नफरतों से,
वही सिमट के रह जाओगी अपने आसुओं  से .
अभी दिल को ऐतबार है कि,
उसे मुझसे प्यार है.
पूछा  जो मैंने उससे ,
तो उसे भी इसका इकरार है.
चल पड़े है दोनों अब कश्ती को सँभालने,
बैठे है दो इंसान अब ज़िन्दगी को खंघालने.

कौस्तुभ शुक्ल 'मनु'



Thursday, November 3, 2011

ज़ज्बात

कभी वो हमारी बात को परखती है  ,
 कभी हम उसके ज़ज्बात को समझते है .
तेरे इंतजार में हम यूँ ही मचलते है ,
तेरे प्यार में ऐ दिल हम यूँ ही संभलते है,

कभी तो बातें बुदबुदाते है ,
तो कभी आयतें दोहराते है.
तुम्हे दिल में छुपाने को जाने क्या क्या जतन करते है
तुमसे मिलने को जाने क्या क्या स्वांग करते है.
महक आती है कभी आस पास यूँ इस तरह,
बिखर जाती हो चादिनी रात में जिस तरह 



कौस्तुभ 'मनु'


Wednesday, October 5, 2011

जिंदादिल ज़िन्दगी

ये कैसी आजादी है,
फैली हर तरफ बेहाली है.
निकलते नही त्योहारों में बाहर कही,
मानों जैसी दिलो में सबके डर की अय्याशी है.
आज़ाद करिए दिलों को अपने,
अब तो देखिये खुल कर सपने.
खुशियों को ख़ुशी से स्वागत कीजिये,
जो मिले रोता उसे दो बातें चार कीजिये.
मत सोचिये क्या क्यों कैसे इतना, 
कि दिल सिकुड़ जाए सूखे पत्तों जितना. 
कभी इत्मीनान से घर पर भी बैठिये,
चाय पीते अपनों से गम को कम कीजिये. 
कभी अपने ख़ास के साथ नदी किनारे बैठिये,
फिर बार बार बार एक दुसरे को कुछ देर और घर जाने से रोकिये.
 -कौस्तुभ 'मनु' 


Monday, August 29, 2011

मैखाना

मैखाने की तलाश में चल पड़ते थे कदम अनजान राहों पर,
अब तो बन बैठा है दिल ही मेरा गम के जामों का आशियाना.

एहसास कभी जामों का हो जाता था,
अब तो एहसास का जाम भी कम पड़ जाता है.

नहीं रही याद अब कोई बाकी दिल में,
इसी लिए दिल अब मैखाने को नहीं जाता है.

फितूर जो था दिल में वो कहीं उड़न छु हो गया,
दिल का बागी परिंदा दूर कही ऊचें आकाश में खो गया.

बन जाएगा अब ये भी अब चालाक धूर्त दुनिया की तरह,
खड़े करेगा ये धक्यानुशी वैमनस्य की वजह.


कौस्तुभ 'मनु'

Tuesday, August 23, 2011

चलने को तैयार थे कदम मेरे,
धड़कन ने मगर साथ न दिया.
रुबाब था मुझे  पास होने का तेरे,
तेरी याद ने मगर फिर से तनहा कर दिया.

- कौस्तुभ 'मनु'

Wednesday, June 8, 2011

मेरी ज़िन्दगी

दिए थे ज़िन्दगी ने ज़ख्म मुझे कई,
मानो खों गयी हो ख़ुशी कहीं,
पर वादा है मेरा तुझसे ऐ ज़िन्दगी,
ढूंढ़ कर वापस लाऊंगा हर ख़ुशी अपनी।
बुन ले हज़ार ताने बाने नाना-प्रकार,
पर दूंगा शिकस्त तुझे मैं हर एक बार।
मानूंगा नहीं मै भी इतनी जल्दी हार,
चाहे मिले हर दिन मुझे अश्रु बार-२।

कौस्तुभ 'मनु'

हमसफ़र

सफ़र में जब तक हमसफ़र कल ख्याल न हो पास,
तो कैसे रहेगा उसे हमारे वापस आने की आस।
खुद हे कदम लौट कर वापस चल पड़ेंगे,
जब वो हमे दिल से अपने पास बुलाएँगे।

कौस्तुभ 'मनु'

Wednesday, May 18, 2011

ज़िन्दगी हर पल

कभी तेरी मदहोशी में कदम चल पड़ते थे,
आज अपनी ही तलाश में कदम उठ चलते है।
कभी तेरे दिल से आने वाली आहट का राज़ पूछ्ते थे,
आज अपने ही कदमों की आवाज़ को खामोश रखते है।
कभी मिलते थे सबसे मुस्कुराते हुए,
आज दिखते ख़ामोशी में दूसरो की ख़ुशी में खुद को सँभालते हुए।
करते थे फ़िक्र हर बात की हम हर पल,
बेफ़िक्री में अब घूमते है कदम आज कल

कौस्तुभ 'मनु'

Wednesday, April 6, 2011

'कुछ' हम

तूफ़ान में दिए को जलाने का शौक है,
दिल में ऊपर वाले का खौफ है ।

दिखता उन्माद चेहरे पर कम है,
फिर भी ज़बान हमारी बेशर्मी में तंग है।

बुरे वक़्त में भी मुस्कुराते हम है,
औरों को कभी कभी इसी बात का गम है।

जहाँ सब को आगे बढ़ने की जल्दी है,
हमें खुद को ऊपर उठाने की तेज़ी है।

जहाँ सब को अपनो के लिए समय की कमी है,
हमें अजनबियों के लिए भी आखों में नमी है।

शायद इसी लिए हम सब के लिए अप्रैल के फूल है,
फिर भी हम अपने आप में कूल है ।

कौस्तुभ 'मनु'

Monday, April 4, 2011

कशिश

कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ,
माँ की रोक में, या फिर पिता की टोक में,
उसकी बातों में, या फिर अकेले अँधेरी रातों में,
कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ।


प्रोफेसर की डाट में , या फिर विद्यार्थी की काट में,
गर्लफ्रेंड से तकरार में, या फिर बेपनाह प्यार में,
कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ।

सुबह को गैस पर उबलते दूध में , या फिर रात को नींद ख़राब करते शोर में,
रोज रोज की लम्बी कूद में, या फिर हमे डराते चोर में,
कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ।

बॉस की फटकार में,या फिर सह-कर्मी की निंदा में,
मेट्रो में भीड़ से होती तकरार में, या फिर और रुपये कमाने की चिंता में,
कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ।

कौस्तुभ 'मनु'