Wednesday, September 8, 2010
बूढ़ा टेलीफोन
आज इतने दिंनो से खराब पड़े अपने बेजुबान लाचार से टेलीफोन को देखा तो ऐसा लगा की मानो बस अभी फुट फुट कर रो देगा. ऐसी मार्मिक स्थिति से उबरने के लिए मेरी उंगलिया अनायास ही अपने मोबाइल पे चलने लगी और मैंने अपने घर का नंबर मिला दिया| रिंग जाती हुई सुनाई दी, तो मैंने उसे अपने टेलेफ़ोन के पास ले गया| उसे थोडा धानधस बढाने की कोशिश की. समझाया उसे की मै अभी कुछ ही देर पहले टेलीफोन ऑफिस से ही आ रहा हूँ, वह के अफसरों को तुम्हारी दुखद स्तिथि से अवगत कराया मैंने , पर वो सब भी तो अपनी ही बासुरी बजाते रहते है | मै कभी इस मेज़ पे जाता तो कभी उस मेज़ पर. जब थक हार गया तो आखिर में सब ने कहा शुक्ल जी आपका ब्रॉडबैंड तो चल रहा है तो क्यों टेलीफोन के लिए परेशान होते है. जाइए एक या दो दिनों में आपका टेलीफोन ठीक हो जाएगा. अब तुम ही बताओ मै क्या करूँ तुम्हारा प्रिय दोस्त ब्रॉडबैंड ही आज तुम्हारा दुश्मन बन बैठा है. कल तुम दबंग थे आज ये है | अब बस दो दिनों की बात और है , तब तक इस मोडम की लाईट की जगमगाहट से ही दिल को तसल्ली दे दो . ये कह के मैंने अपने मोबाइल को उसकी आखो के सामने खुद से दूर रख दिया| सोचा शायद मोबाइल के दूर होने से टेलीफोन को अपनी महत्ता का अहसास होकर थोड़ी तस्सली मिलेगी| पर उसका बुरा वक़्त कहिये या मोबाइल का अच्चा वक़्त अचानक से हे मेरे मोबाइल की घंटी बजने लगी, ऐसा लगा जैसे मानो मोबाइल भी बूढ़े टेलीफोन का मज़ाक उड़ा रहा हो. मानो मोबाइल गुस्से से घुर कर कह रहा हो की, 'अब तुम्हारी महत्ता सिर्फ इन्टरनेट की वजह से है, वरना नहीं'|
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