Friday, November 12, 2010

दिल्ली में दिल से 'सोचिये'

शाख से टूट के बिखर जाते है पत्ते कुछ इस तरह ।
जैसे इनका शाख से कोई नाता नही ,
ज़िन्दगी से चले जाते है लोग कुछ इस तरह ,
जैसे उनका हमसे कोई वास्ता नही .
बरसों की दोस्ती टूट जाती है कुछ इस तरह ,
जैसे उन्हें अब हमारी कोई फ़िक्र ही नही।
काश देती साथ तुम हर पल मेरा कुछ इस तरह ,
जैसे मुझसे दूर जाने की तुझे ज़रूरत नहीं .
अब रह गया हूँ मै तेरी ज़िन्दगी में कुछ इस तरह ,
जैसे अमावास की रात में चांदनी की बिसात नहीं ।
खुशिया फिर भी बिखर जाती है ज़िन्दगी में कुछ इस तरह,
जैसे इनका अब मेरे सिवा और कोई साथी नहीं।


कौस्तुभ 'मनु'

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