Monday, April 4, 2011

कशिश

कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ,
माँ की रोक में, या फिर पिता की टोक में,
उसकी बातों में, या फिर अकेले अँधेरी रातों में,
कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ।


प्रोफेसर की डाट में , या फिर विद्यार्थी की काट में,
गर्लफ्रेंड से तकरार में, या फिर बेपनाह प्यार में,
कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ।

सुबह को गैस पर उबलते दूध में , या फिर रात को नींद ख़राब करते शोर में,
रोज रोज की लम्बी कूद में, या फिर हमे डराते चोर में,
कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ।

बॉस की फटकार में,या फिर सह-कर्मी की निंदा में,
मेट्रो में भीड़ से होती तकरार में, या फिर और रुपये कमाने की चिंता में,
कशिश है फिज़ाओ में हर तरफ।

कौस्तुभ 'मनु'

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